नही कभी *काम* हेतु, नही कभी *दाम* हेतु
नही कभी *नाम* हेतु, काज कोई करतें |
नही नारियों के *लाज*, नही नृपों के ही *ताज*
नही किसी का ही *राज* कभी हम हरतें |
रघुवंश की *पुनीत*, *रीत* सदा रही *मीत*
वचन के मान हेतु जीते और मरतें |
देते जग को जो *दंश*, उन पापियों का *ध्वंस*
मेटने को दैत्य *वंश*, आयुध है धरतें ||
सुनिल शर्मा"नील"
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