भूत से ,वर्तमान से, आज से ,कल से बेवफाई तले बीते हर एक पल से नफरत है मुझे
घृणा है उन सभी से जिन्होंने मुझे सिर्फ सताया है अपने जिद के लिए
वेदना देकर बनाया है मुझे पाषाण
पाषाण जो निष्प्राण है,प्राण होकर भी!जो न बन पाएगा कभी सुघड़ मूर्ति और
किया है तप्त कोयले की तरह जो दग्ध है पीड़ा से
जिसके भाग्य में लिखा है जलकर अंततोगत्वा राख हो जाना
जिसके हृदय को निचोड़ा गया है इतना कि नयन संपुट भी शुष्क है
बना दिया है मरुभूमि सा जो हर घुमड़ते बादल से पूछता है पता खुशियों की
खुशियों के बारिश की जिसमे मिली हो वफ़ा की सौंधी गन्ध
जिससे सुख मिल सके मरूभूमि को अपने नन्हे नवोद्भिद को देखने का
अपने वक्ष में विकसित होता ,हवा के झोंको में हिलते देखने का
बस इसीआस में पसरा हुआ है बाहों में गर्म रेत लिए
ताकि एक दिन तरस आये उस विधाता को उसकी तपन पर
और भीगा दे उसे अपने अनगिनत जलबूंदों से मिलाने उस नन्हे "पौधे से"|
सुनिल शर्मा "नील"
थान खम्हरिया,बेेमेतरा
7828927284
रचना-21/11/2015
CR
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